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अनुशरणकर्ता

11 Mar 2011

दायरा

कही कोई डाकू छिपा साधुओं के वेश में
कहीं डाकुओं में छिपा संत बोलता है जी

कहीं तो किसी के लिए मंजिल ख़तम हुई
कहीं पर आसमा अनंत बोलता है जी

कहीं तो गरीबी चुपचाप खड़ी देख रही
कहीं पर अमीरी का घमंड बोलता है जी

कहीं अबला पिसे इस सरफिरे समाज में
कहीं पर काली का प्रचंड बोलता है जी

इक बीत जाएगा तो दूसरा नया शुरू
ऋतुओं का राजा ये बसंत बोलता है जी

कभी मत भूलो तुम अपनी औकात को
आज इस कविता का अंत बोलता है जी