कभी रंगीनियों में आंसुओं की धार पैदा कर
कभी गमगीनियों में खुशियों की बहार पैदा कर
भीड़ में रहकर भी है, हर कोई अकेला
दिल में , खुद के वास्ते कुछ प्यार पैदा कर
मुरझाये हुए चेहरे भी खिल उठे ऐसे
पतझड़ में इक बसंत की बहार पैदा कर
ये बेरहम दुनिया, तुझे पीछे धकेलेगी
अगर आगे निकलना है तो फिर रफ़्तार पैदा कर
करनी है अगर पूरी ख्वाहिश-ए -अमन,
हर शख्श के दिलों में हवलदार पैदा कर
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मुझे अहसास न था बेवफाई का
नहीं भूला वो दर्दे गम जुदाई का I
जहाँ की भीड़ जब बेकदर बन बैठी
भला मै साथ कैसे छोड़ दूं तन्हाई का I
कैसे कहें अहसास अपनी जिन्दगी का
मुझे बस याद है वो दिन सगाई का I
बिना जिसके गुजरती थीं नहीं रातें
करू क्या गर्मियों में इस रजाई का I
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चाहतें ही गुनाह करती हैं
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चाहतें ही गुनाह करती हैं
जिंदगी को तबाह करती हैं
किसी के जाने की तकलीफ हुई क्यों दिल को
इक झलक देखने की जिद निगाह करती हैं
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