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11 Mar 2011

दायरा

कही कोई डाकू छिपा साधुओं के वेश में
कहीं डाकुओं में छिपा संत बोलता है जी

कहीं तो किसी के लिए मंजिल ख़तम हुई
कहीं पर आसमा अनंत बोलता है जी

कहीं तो गरीबी चुपचाप खड़ी देख रही
कहीं पर अमीरी का घमंड बोलता है जी

कहीं अबला पिसे इस सरफिरे समाज में
कहीं पर काली का प्रचंड बोलता है जी

इक बीत जाएगा तो दूसरा नया शुरू
ऋतुओं का राजा ये बसंत बोलता है जी

कभी मत भूलो तुम अपनी औकात को
आज इस कविता का अंत बोलता है जी

9 Feb 2011

शायद मै जिन्दा हूँ

शायद मै जिन्दा हूँ ।

धड़कन भी धक् धक् दौड़ रही, 

नज़रें भी टुक टुक देख रहीं, पर जाने क्यों शर्मिंदा हूँ ।---               शायद मै जिन्दा हूँ ।

इक लूटे दूजा लुट जाए, 

चला गया मै नज़र झुकाए

मेरा  क्या गैरों से मतलब, मै तो एक परिंदा हूँ ।----शायद मै जिन्दा हूँ ।

अपने काम में शर्म जताई, 

किया नौकरी सदा पराई

निज स्तर की आस लिए, मै शहरों का बाशिंदा हूँ ।----शायद मै जिन्दा हूँ ।

शब्दों में गिटपिट अंग्रेजी, 

भूल गया हूँ भाषा देशी

अपनों का बन गया खुदा गैरों के लिए दरिंदा हूँ ।---- शायद मै जिन्दा हूँ ।