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अनुशरणकर्ता

20 Jul 2010

मिले जब भी फुरसत ........

मिले जब भी फुरसत तुम्हे दूसरों से, तो करना कभी याद, आना कभी 
झुकाके के निहाहें बस दो चार आंसू ,मेरी याद में भी बहाना कभी 
मिले जब भी फुरसत .......
वो चेहरा गुलाबी, अदाएं खिताबी, निगाहें कटीली वो ऑंखें शराबी 
है वर्षों से प्यासी जो मेरी तमन्ना, तू छलकाके के इक घुट पिलाना कभी । 
मिले जब भी फुरसत ........
अंधेरों में यूँ खो गयी मेरी राहें, जरा से उजाले को तरसी निगाहें 
चिराग अपनी आँखों में ख्वाबों के  लेकर जलाना  कभी, बुझाना कभी 
मिले जब भी फुरसत ..........
मिला क्या हमें एक फरियाद करके बने याद खुद हम तुम्हे याद करके
यादों की मेरी, इक तस्वीर दिल में बनाना कभी , मिटाना कभी 
मिले जब भी फुरसत .............. 

इश्क की हद (हास्य कविता)

कैसे करूं इजहार इश्क का मै इतना शरमाऊँ
दिल करता है तेरी गली का कुत्ता बन जाऊं
तेरे इशारे पर  भौंकू मै तू बोले तो काटूं
तू बोले तो शांत रहूँ और बोले तो चिल्लाऊं
दिल करता है ...........
जहाँ जहाँ तेरे चरण पड़े, मै उसी धुल में लोटूं
जो तेरे घर से जुड़ा हुआ उस गटर में रोज़ नहाऊं
दिल करता है ...........
तेरी गली के जितने आशिक सबको मार भगाऊँ
तेरे घर की दीवारों से अपने बदन खुजाऊँ
दिल करता है ...........
जब तू देखे खिड़की से मै अपनी पूंछ हिलाऊँ
ऐसे सपनो की दरिया में गोते रोज़ लगाऊँ
दिल करता है ...........

19 Jul 2010

मै कवि हूँ !

 मै कवि हूँ ! 
कल्पना में सच दिखाने  की छवि हूँ 
मन तो उजला है मगर काला बदन है 
हर बुराई जीत लेने की लगन है 
वैसे तो अंधेरो में भटकता रवि हूँ .. मै कवि हूँ ! 
महज कुछ  शब्दों का श्रृंगार लेकर 
समर में बस इक कलम, हथियार  लेकर
जाने क्यों दुनिया के गम पर मै दुखी हूँ  .. मै कवि हूँ ! 

12 Jul 2010

दर्द की इक लहर


वो गए एच ड़ी की दिल मजबूर बनकर रह गया 
जख्म कुछ ऐसा मिला नासूर बनकर रह गया
गम भुलाने के लिए दूजे को साथी चुन लिया
फिर से दिल टूटा की इक दस्तूर बनकर रह गया

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उम्र उनकी यूं  बढे की मुझसे थोड़ी कम मिले 
जिससे मेरी मेरी मौत का न उनको कोई गम मिले 

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रात से सुबह  का आना, सुबह से शाम का आना
आँख से अनवरत बारिश लवों पर नाम का आना 
निगाहें देखती राहें तेरे पैगाम का आना 

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हुज़ूर गम के दिए दिल में मेरे जलते रहे 
अँधेरा राहों में रहा बाकी फिर भी मंजिल की ओर चलते रहे 
कारवां सामने से जब निकल गया एच ड़ी 
हम सारी  ऊम्र हाथ मलते रहे 

10 Jul 2010

एक शादी सुदा व्यक्ति का दर्द

वो खुशनुमा किस्से बहुत ग़मगीन हो गए
हम स्वीट थे पहले की अब नमकीन हो गए
 मुझको बदल दिया फिर बोली पहले जैसे नहीं रहे
मैंने कहा कभी मत कहना पहले थे अब नहीं रहे 
पहले नज़रों में बसते थे अब आँखों में चुभ जाते हैं
पहले खाते पीते घर के अब पेटू कहलाते हैं
देखा नज़ारा दोस्त सभी मुझपर हसते इठलाते है 
पहले तीरंदाज बड़े अब चिड़ीमार कहलाते है 
 कह एच डी कविराय जगत की यही रीति है 
पास रहे तो नफरत दूर से बड़ी प्रीति है 

एक नया हमसफ़र

वो चंचल सी एक परी मेरे कमरे में रहती है 
मुझे देखकर मुस्काती , और मन ही मन कुछ कहती है 
मानो हिरनी दौड़ रही हो, जब  वो लहराकर चलती है 
कुछ पल ठहर के मुझको देखे फिर कुछ दूर निकलती है
अपनी कजरारी आँखें फिर चारों ओर घुमाती है
मै जब जाऊं पास कभी तो शरमाकर छिप जाती है 
घर के कीट पतिंगे जो भी, सब को मार भागाती है 
मै ऑफिस में रहता हूँ जब वो गाना गाती है 
उसकी मधुरिम धुन सुनने को मेरा मन तरसता है 
अबके बरस ये सावन मेरी आँखों से बरसता है 
बिना रजाई कम्बल के वो सारे मौसम सहती है 
जाने क्यों सारी दुनिया उसे छिपकली कहती है    

चाँद के लिए सन्देश

कोई जाकर चाँद से कह दे, मेरे आँगन भी आ जाए
संग में अपने दो छोटे से, तारों को भी ले आये
जब पुरवाई चलती है, मन में एक आहट होती है
किसी की यादों में ले जाकर  पलकें नम कर देती है 
अपना किसे कहें इस जग में आकर मुझे बता जाये  
कोई जाकर चाँद से कह दे, ................................
सावन की अँधेरी रातों में दिल बोझिल सा हो जाता है
अपने अधरों पर सिसक लिए तूफां का झोंका आता है
इन गम की अँधेरी राहों में, खुशियों का दीप जला जाए
कोई जाकर चाँद से कह दे, ................................

हे प्रभु मुझको पास बुलालो

हे प्रभु मुझको पास बुलालो मै इस जग से ऊब गया
दुराचार व्यभिचार प्रखर है सत्य अहिंसा डूब गया
झूठ भरा है कण कण में अमर प्रेम व्यापार हुआ
भाषाओँ पर राजनीति, वो राष्ट्र धर्मं बेकार हुआ
सत्य अहिंसा के साधक बापू का सपना टूट गया
हे प्रभु मुझको पास बुलालो ........................
जिसने सौ कत्लें कर डाली वो नेता बन जाता है
संसद की कुर्सी मिलते ही, बनता विष्व विधाता है
पहन के खाड़ी का कुरता सारी जनता को लूट गया
हे प्रभु मुझको पास बुलालो ........................
मन की ज्वाला कहती है, अपना कर्त्तव्य दिखा  दूं मै
सत्य, अहिंसा, राष्ट्र प्रेम सबको जाकर सिखा दूं मै 
एच  डी, अपनी कलम रोक दो उगता सूरज डूब गया 
हे प्रभु मुझको पास बुलालो ........................  

9 Jul 2010

सवाल

हे पुष्प तेरी कलियाँ मुझको क्यों अपने पास बुलाती हैं
हे हवा तेरी मदहोशी मेरे मन पर क्यों छा जाती है
हे तारों इतनी दूर खड़े क्यों एकटक मुझे निहार रहे
क्या अपने पास बुलाने को तुम अब तक खड़े पुकार रहे
हे सूरज दिन भर दर्शक बन तुम मेरे साथ बिचरते हो
सब कुछ देख रहे ऊपर से पर न्याय नहीं तुम करते हो
हे चाँद सही से तुम अपना क्यों काम नहीं कर पाते हो
कुछ दिन अपनी चमक दिखाकर जाने कहाँ छिप जाते हो
हे धरा बताओ क्यों लोगों के हर तांडव को सहती हो
सबका बोझ उठाकर भी तुम कभी नहीं कुछ कहती हो

7 Jul 2010

रोग गरीबी का

जब केवल एक पान खाने से पूरा बज़ट बिगड़ जाए
गुस्ताखी करने वाला ही तुम पर बहुत अकड़ जाए
जब गाड़ी में सीटे खाली हों पर तुमको छोड़ निकल जाये
तुमसे पैसा लेने वाला देने के समय बदल जाए
जब सारे तनहा छोड़ चले और कोई नहीं करीबी है
तो समझो समय का चक्कर है और तुमको लगी गरीबी है

ये चमन नहीं गुलदस्ता है

ये चमन नहीं गुलदस्ता है
हैं सारे फूल ये कागज के न खुशबू से कोई रिश्ता है
हर चीज यहाँ पर महंगी है इंसान यहाँ पर सस्ता है
ये चमन नहीं गुलदस्ता है
हम प्रेम की भाषा बिन जाने कितनी भाषाएँ पढ़ते हैं
निज स्वारथ की आश लिए, फिर आपस में सब लड़ते हैं
शोलों से भरी निगाहों से नफरत का जहर बरसता है
ये चमन नहीं गुलदस्ता है
चिथड़ों में लिपटी हुई खड़ी निचले समाज की रेखा है
जो मखमल का भंडार लिए, न उसने अब तक देखा है
निर्बल कुछ अंतिम सांसों में जीने के लिए तरसता है
ये चमन नहीं गुलदस्ता है

1 Jul 2010

एक गरीब और नेताजी


क्या तुम मिलना चाहोगे उस गरीब से,
जिसने देखा है नेताजी को करीब से,
प्रेम नगर को जाने वाली इक रैली थी
मेरी भी एंट्री उसमे पहली पहली थी
राम खेलावन यादव की ट्रेक्टर ट्राली थी
लगभग एक बज गया पर अब तक खाली थी
मैंने कहा खेलावन  भैया कब जायेंगे
चल देंगे जैसे ही परचा चिपकायेंगे
मंगरू, पुत्तन, भुर्रा, गुड्डू सब आये हैं
नेता जी से आज मिलेंगे हर्षाये हैं
परचा को चिपकाकर बोले लाल बिहारी
चलने की अब तुम सब कर लो तैयारी
हांथों में पार्टी का झंडा, जोर से सब करते आवाज 
राजनितिक पार्टी जिंदाबाद - 
प्रेम नगर में जाकर करते इंतजार है 
नेताजी कब आयेंगे सब बेक़रार है
कुछ ही पल में नेता जी की कार  गयी 
भूल गए क्या हम सब की सरकार  गयी 
हाथ जोड़ कर करने लगे सभी अभिवादन
जिंदाबाद के नारे से करते अभिनन्दन 
कुछ लोगों ने उनको एक माला पहनाया 
तब मंगरू ने उस माला  पर नज़र घुमाया 
माला में इक इक हज़ार के नोट जड़े थे 
देख नज़ारा मंगरू के अब कान खड़े थे 
उसको याद  गए अपने भूखे बच्चे 
जो अब तक थे अबोध और मन के सच्चे 
उम्मीद भरी नज़रों से सब कुछ देख रहा था 
कम से कम इक तो दे देंगे, सोच रहा था
इन पैसों से मेरे बच्चों की भूख मिटेगी 
कर लूँगा रोज़गार मेरी किस्मत चमकेगी
नेता जी ने दिया विरोधी पार्टी पर इक भाषण 
आज हटा दूंगा मैं गरीबी और गरीब का शोषण 
नहीं रहेगा कोई गरीब और गरीबी मिट जायेगी
मैं छोडूंगा एक मुहिम सारी चिंताएं हट जाएँगी
बड़ी बड़ी बातें कहकर तो नेताजी प्रस्थान कर गए 
पर वो ऐसा क्या बोल गए की मंगरू को हैरान कर गए 
मंगरू बहुत सोचकर बोला ये क्या मुहिम चलाएंगे 
महंगाई गर और बढ़ गयी तो खुद गरीब मिट जायेंगे 
कोई पड़ोसन शापिंग  करके जब अपने घर आती है
मंगरू की पत्नी सरला, बस देख उन्हें ललचाती है
काश मेरा मंगरू भी अब इतना अमीर हो जाए 
रोज़ करें शापिंग, मुझको गाड़ी में रोज़ घुमाये 
सुबह सबेरे मंगरू को वो ताने रोज़ सुनाती है 
पर मंगरू मेरा  सौहर है, इतने में ही खुश हो जाती है 
ऐसे ही कितने मंगरू रोटी के लिए तरसते हैं
लेकिन नेता जी के बादल, रिश्तों के लिए बरसते हैं