इक जुगनू सी चमक लिए मै इधर उधर मंडराता हूँ
तेज रौशनी से छिपकर मै परछाई बन जाता हूँ
अरमानो की लाठी लेकर चार कदम तो चलता हूँ
नाकामी ही मंजिल होगी सोच के ये थक जाता हूँ
बेदर्द जमाने से बचने की सबको नसीहत देता हूँ
पर जाने क्यों इस चक्कर में खुद मै ही फंस जाता हूँ
अपने करियर की गाडी मै दूर शहर में ले जाकर
रिश्तों के कच्चे धागे से फिर पीछे खिंच जाता हूँ
मै ऐसा आंवारा बादल जिसमे कुछ बरसात नहीं
अपनी काली घटा दिखाकर हवा में फिर उड़ जाता हूँ
मेरी खुशबू पवन ले गया फिर भी मुझको फूल कहें
दिल में अपने दर्द छिपाए मंद मंद मुस्काता हूँ
सारे रस्ते बंद हो गए अब बाबा बन जाऊँगा
दिन भर रब को याद करूंगा सोच के खुश हो जाता हूँ
तुम ठहरो मै आता हूँ ,, है राह कठिन घबराता हूँ
बेदर्द जमाने से बचने की सबको नसीहत देता हूँ
ReplyDeleteपर जाने क्यों इस चक्कर में खुद मै ही फंस जाता हूँ
Bahut Khub aur bahut hi accha likha hai apne
सोचा की बेहतरीन पंक्तियाँ चुन के तारीफ करून ... मगर पूरी नज़्म ही शानदार है ...आपने लफ्ज़ दिए है अपने एहसास को ... दिल छु लेने वाली रचना ...
ReplyDeleteआपने बड़े ख़ूबसूरत ख़यालों से सजा कर एक निहायत उम्दा ग़ज़ल लिखी है।
ReplyDeleteहिम्मत अगर जवां है तो मंजिल भी पाओगे - गर मायूस हो गए हो यो मंजिल कोई नहीं
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